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रास्ते चाहे जैसे भी हों पर मंजिल की उम्मींद सब रखते है, राह कैसी भी हों लेकिन उन्ही रास्तो पर चल कर ही मंजिल मिलती है, और मंजिल मिलने की ख़ुशी भी तो लाजवाब होंगी |
रुकावट तो जीवन का आधार है, ये आएंगी नहीँ तो मंजिल की अहमियत समझ ही नहीँ आएगी किसी को |
इन सब मे एक बात और है जो ये है की जिसकी कोशिश जैसी होती है, उसकी मंजिल भी वैसी ही मिलती है, चाहे रुकावट कितनी ही बड़ी क्यू ना हों, |
जीवन कभी समस्याओ से पीछे नहीँ मुड़ता, ना रुकता है, ना थमता है और ना ही कभी पीछे पलटकर देखता है, इसका तो काम ही है आगे चलना, और बस चलते रहना |
संध्या और आकाश भी दो बिलकुल अलग स्वभाव के लोग थे, जिनकी किस्मत सायद भगवान जी ने एक ही स्याही से किखि थी |
संध्या बचपन से काफ़ी समझदार थी, पढ़ने मे भी काफ़ी होशियार थी और अपने पैरो पर खड़ा होना था उसे, स्वाभाव से ऐसी थी के किसी को भी पहली मुलाक़ात से अपना बना ले, काफ़ी जिंदादिल थी..................और बोलती तो रूकती ही नहीँ, जबकि आकाश के मुंह से लोग दो मीठे बोल सुनने को तरस जाते, कहने को तो दोनों की शादी होने वाली थी पर दोनों के स्वभाव मे ज़मीन आसमान का अंतर था, और यहीं बात हर पल मुझे खटकती रही |
संध्या जितनी हसमुख और चंचल मन की थी, आकाश उतना ही गंभीर, आकाश को हस्ते देखना एक अरसा बीत जाने के बराबर था |
संध्या रिस्तो की जितनी कदर करती, उन्हें सँभालने मे "आकाश ने तो कभी रिस्तो की अहमियत को समझा ही नहीँ |
इन दोनों को देखकर आज भी मेरे दिमाग़ मे एक ख्याल आता है की सागर के दो किनारे जो बिल्कुल सामान नहीँ है इन्हे भगवान ने क्या सोचकर मिलाया है, और आज उन्दोनो की माग्नि भी हों गयी |
संध्या खुले बिचारो की लड़की है जिस कारण लोगो से मेल जोल बढ़ाने मे उसे जरा भी देर नहीँ लगी जबकि इसके विपरीत आकाश से तो अपने लोगो की ही नहीँ बनती |
धीरे धीरे समय बिता और दोनों की शादी भी हों गयी...
शादी के बाद दोनों मे मनमुटाव सा होने लग गया, और जिस बात के लिए मैं डर रही थी, वही होता सा प्रतीत हुआ................................................ .............. तभी संध्या ने आगे बढ़कर सारे मनमुटाव को नजरअंदाज करके समझदारी के साथ दरियादिली भी दिखाई, जिसकी उम्मींद आकाश से लोग कभी कर ही नहीँ सकते |
उसी पल मुझे समझ आया के जरुरी नहीँ है के दोनों एक जैसे हों तभी गृहस्थी चलती है, जीवनसाथी सुई और धागे की तरह होनी चाहिए एक दूसरे की कमी को पूरा भी करे और एकदूसरे के गुणों से मेल भी रखे |
संध्या को देखकर लगता है मैं कितनी गलत थी उसे लेकर, जब एक साथी रूठा बैठा हों, तो दूसरा साथी मानाने वाला ही होना चाहिए, अगर दोनों ही रूठ कर बैठ जायेंगे तो वहा दिकत्ते आनीं तो तय है, """
कहानि का सारांश भी यहीं है की भगवान जी ने उनके लिए सही फैसला लिया है, हर जीवनसाथी को ऐसा ही होना चाहिए जहा दोनों अपने गुण और अवगुण से एक दूसरे को पूरा करदे ""आपस मे मिल जाये,और दोनों एक दूसरे का सहारा बने रहे सदा सदा के लिए |
" धन्यवाद "
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