लेकिन शाम होते हीं अंधेरें मे कहीं जाने की इच्छा नहीँ होती, क्युकि शाम के साथ हीं मेरे आँखों की रौशनी भी बस 30 %हीं रह जाता है,
लेकिन अभी भी मुझे 15 किलोमीटर और दूर जाना था, घर मे शादी है, और मुझे हीं कार्ड बाटने के लिए दूर दूर के रिस्तेदारो को कार्ड देने का जिम्मा दिया गया था, मैंने तो सबको बताया था की अब मेरी उम्र हो चुकी है और शाम होटल हीं मुझे दिखना भी बंद हो जाता है, फ़िरभी पता नहीँ क्यूँ मुझे हीं ये काम डे दिया,
शाम हो चुकी है, रास्ते मे अगर घटना हो जाये तो मै क्या करूंगा..... यहां से उस रिस्तेदार का घर भी दूर है चलो कोई बात नहीँ, यही सोच कर मै सामने एक शिव मन्दिर मे जाकर बैठ गया,
सोचा सूरज की पहली किरण निकलते हीं मै वापस से चल दूंगा...... वहां जाकर बैठते हीं मुझे गरमा गर्म खिचड़ी प्रसाद मिल गयी, जिसे खाकर मेरा पेट भी भर गया,पर एक अंजान जगह मे नींद कैसे सकती थी, मै आस पास के लोगो को देखता हुआ, और मन्दिर मे भगवान के पास बैठा रात काट रहा था,
अभी शाम के 7.30 बजे थे, और देखते हीं देखते कब आँख लग गयी कुछ पता हीं नहीँ चला,,,,,,
मुर्गे की तेज बांगा से मेरी आंखे खुल गयी,,,
आंखे खुलते हीं मेरे सामने दो पहलवान की तरह दिखने वाले साधु खडे थे, ये दोनों तं पर कपड़े के रूप मे केसरी रंग के लंगोट पहने हूए थे,
मुझे बड़ा अजीब लगा... मै तो रात को शिव मन्दिर मे सोया हुआ था, ये कहा आ गया, और कैसे?
तभी एक बड़े से साधुओ के दल को लेकर एक ब्यक्ति मेरी और चला आ पड़ा रहा था,
मेरे दिमाग़ मे एकबात आयी..... मै किसी मुसीबत मे तो नहीँ फंस गया... और ये लोग कौन है,
तो उस साधुओ के दल के सबसे ख़ास मुखिया ने कहा,,,,, आप मन्दिर मे क्यूँ सौ रहे थे, हमारे लोग मन्दिर पहुँचे तो उन्होंने आपको पाया, और बगैर देरी के आपको यहां ले आया...
मैंने अपनी सारी कहानी बतला दी के मै किस वजह से मन्दिर मे सो रहा था,
मैंने देखा की उजाड़ और माटी के बड़े बड़े टिले को ये सब अपना घर बता रहे थे, और घर के रूप मे मात्र दो कमरे बने हूए थे,
सभी साधु माटी के तिलो पर विश्राम करते और खाने के लिए, ज्यादातर कच्चे सब्जियाँ और ग़ल खाते,
वे सभी भगवान शंकर के भक्त थे, हलाकि मुझे अपने रिस्तेदार के घर जाना था, पर वहां का वातावरण मुझइतना पवित्र और मनमोहक लगा की मै वही ठहर गया, और साधुओ के रहन सहन को आँखों मे कैद करने लग गया,
लम्बे लम्बे रास्ते और माटी के टिलो पर बैठे सभी साधुओ की हसीं ठिठोली देखने लायक थी, भले हीं मै एक अंजान शख्स था, मगर उनकी भवनाओ से मै एक भगवान शंकर का दूत बना रहे थे, वे हर अंजान शक्श की वैसे हीं देख भाल करते, जैसे मरी कर रहे थे,
उनका मानना था की भगवान शंकर कई साधुओ को साक्षात दर्शन दे चुके थे, इसलिए वे कब किस रूप मे आ जाये, कोई नहीँ जनता , मुझे भी उनकी बातें अच्छी लग रही थी,
बड़े ताज्जुब की बात थी उन सभी मे से किसी ने शादी नहीँ की थी मगर वहां दो लड़कियां नजर आई मुझे, पूछने पर उन्होंने बताया की ये दोनों अलग अलग जगह पर लावारिस मिली थी, इसलिए हम सिर्फ देख रेख करते है, और बेटी की तरह दोनों को पाल रहे है, बड़ी लड़की लम्बी और दिखने मे साफ सुथरी थी, जबकि छोटी लड़की जो की 16 वर्ष की थी,
और उसका रंग थोड़ा मल्लिन था, ये दोनों दिन भर भगवान श्रीं कृष्ण के तरह तरह के रूप धर कर अपना और बाकियो का मनोरंजन करती थी ,वह बचपन से कृष्ण भक्त थी,
दोनों लड़कियां वहां के दो साधुओ को पिताजी पिताजी केह कर पुकार रही थी, और वे उनसे बहुत डरती भी थी, कहीं जाना हो तोबगैर उन्दोनो के इजाजत के निकलना भी मुश्किल था,
मेरी खुद की इतनी खातिर दारी मुझे वहां का आदि बना रहा था, और इस तरह दो दिन कैसे निकल गये पता भी नहीँ चला,
फिर मैंने उनसब से आज्ञा लेनी चाही जाने के लिए, पर वे सब ना जाने कहा थे, मेरे पूछने पर एक साधु ने बताया की वे सब नदी की और गये है, तो मै भी उधर के लिए निकल पड़ा,,,,,
वहां पहुंचकर पाया की यह साधुओ के बने माटी के टिलो के पुरे क्षेत्र के मुख्य द्वार के ठीक सामने से न्दी बहती निकल रही है, जिसमे साधुओ ने ढेर सारे घी के दिए जलाये हुए थे,
पूछने पर उन्होंने बताया की हर माह मे दोनो त्रयोदशी को इस पवित्र नदी मे हम दिए प्रवाहित करते है, और आज त्रर्योदशी है, इसलिए सभी अपने अपने दिए प्रवाहित कर रहे है,
हमारे चलन के हिसाब से नदी मे दिए प्रवाहित करना कई जन्म के पाप नष्ट कर देता है, इसलिए सभी को ऐसा करना चाहिए,
मुझे उन्हें वहां देखकर बहोत ख़ुशी हुई, और आँखों मे दिए से जगमगति नदी की रौशनी लेकर निकल पड़ा, उस दिन मुझे चमत्कार का अनुभव हुआ, मेरे आँखों की रौशनी संध्या के समय मे भी ज्यो की त्यों बनी हुई थी,
इसके बाद मै अपने रिस्तेदार के यहां कार्ड देने के लिए निकल पड़ा,
और मै अपना काम करने के बाद वापस घर लौट आया, इसके बाद शादी भी बड़े धूम धाम से निपट गयी,
आज पुरे 4 साल बीत चुके है उस वाकए को, और मेरा मन अचानक से ना जाने क्यूँ वहां फिर से जाना चाह रहा है, बड़ी मुश्किल से दफ्तर से 4 दिन की छुट्टी ली है,
मै जल्द हीं उन साधुओ से मुलाक़ात करने के लिए निकल जाऊंगा, और ठीक सुबह के 4 बजे मैने जूनागढ़ के लिए बस ली, और उसी पुराने शिव मन्दिर के पास जाकर रुक गया, आस पास नजरें डाली पर कोई साधु विचरण करते नजर नहीँ आये,
तो मैंने सोचा क्यूँ ना मै हीं चलु...... आगे जाकर उसी फाटक के पास खड़ा हो गया जहाँ से आखिरी बार वापस आया था......... सामने खडे दो साधुओ ने फाटक खोला,
दोनों साधू मुझे थोड़े दुखी नजर आये, फिर मै आगे बढा और मिट्टी के बड़े बड़े टिलो (स्तूप ) की और बढ़ चला,
वहां मेरे कई पुराने मीत्र साधु मुझे वहां मिले, मेरी उनसे कई सारे बातें हुई, मुझे भी बड़ा आनंद आ रहा था उनकी बातें सुनने मे, फिर एक साधु ने मुझे पेद से तोड़कर कुछ पके पपीते और आमरुद खाने को दिए,
मै धीरे धीरे उन्हें कहा हीं रहा था की अचानक मेरी नजर उन दो कमरों पर पड़ी, तो मै पूछा बैठा दोनों बिटिया कैसी है अभी...... उन्होंने ऐसा ब्यवहार किया जैसे कुछ सुना हीं ना हो,
फिरथोड़ी देर बाद एक मीटर साधु ने बताया की बड़ी वाली तो हमारी तरह नागा साधु बन चुकी है मगर छोटी वाली ने नाक कटवा डाली,
दुनिया की बातें सुनने के लिए हमने उसे गोद लिया था, और इतने जतन से पाला था, मैंने पूछा आखिर बात क्या है,,,,, हुआ क्या?
तो उसने बताया की छोटी वाली अपने एक सहपाठी से ब्याह करना चाहती थी,....... हमने कहा की हम तो चाहते थे तुम भी हमारी तरह साधु बनो,,,, शादी ब्याह हमारे यहां की रीत नहीँ है,
फ़िरभी आपस मे बात चित करके किसी तरह हम मान हीं गये थे, पर हमारा फैसला सुनने से पहले वह उस लडके के साथ चली गयी,
वह लड़का आया था हमसे हाथ मांगने पर तब हमने मना कर दिया था, लेकिन ज़ब लड़की यहां से निकल गयी तो कुछ समय साथ रहकर लडका शादी से मुकर गया,
हमें पता चला है की अब वह किसी बुरे काम मे लीप्त हो गयी है, इसलिए अब उसका नाम भी यहां नहीँ लिया जाता, दूसरी बेटी अब मर चुकी है हमारे लिए, कृपया कर आप भी उसके बारे मे ना हीं पूछो तो अच्छा रहेगा,
साधु मित्र से ये सब जानकर बड़ा दुख हुआ, पिछली बार ज़ब यहां पहुंचा था तो उसकी कितनी तारीफ किया करते थे सब, अब तो नफ़रत है उससे, काम हीं कुछ ऐसा किया है उसने,
सबकी उदासी देख मै भी वहां ज्यादा देर ना रुक सका, और मै उलटे पांव लौट आया, गया तो था समय बिताने पर पहले जैसा माहौल वहां रहा नहीँ, घटना ताजी है इसलिए सभी दुखी थे,
इसके बाद मेरी 3 दिन की छुट्टी अभी यु हीं पड़ी थी, तो मै वहां से निकल कर काशी दर्शन के लिए निकल गया, काशी पहुंच कर भगवान के खूबसूरत अच्छे से दर्शन कर वापस लौट हीं रहा था की मेरी नजर उसी दूसरी बेटी जिसका नाम काजल बताया था उनलोगो ने वह एक दुकान मे भगवान के सज श्रृंगार के समान को बेचती नजर आयी,
मै वहां पहुंचा और बोला बेटी तुम काजल हो ना, जो जूनागढ़ मे मिली थी मुझसे, उसने कहा "हाँ "
मैंने पूछा तुम यहां क्या कर रही हो?
उसने बताया की मैंने वो जगह छोड दी है, मेरे रिश्ते के लिए अभय उनसे बात करने पहुंचा था, पर उनलोगो ने साफ मना कर दिया, जिसके बाद मै उस जगह से निकल आई,
मैंने पूछा क्या तुम अब अकेली रहती हो, अभय नहीँ है साथ,
"नहीँ " उसने मुझसे शादी करने से इंकार कर दिया, और मै वापस भी नहीँ जा सकती इसलिए यही पर काम करके अपना गुजारा कर रही हु,
"तो क्या तुम वापस नहीँ जा सकती,"
नहीँ अब वहां नहीँ जाउंगी, भगवान के समीप रहकर मुझे शान्ति का अनुभव होता है इसलिए मै पुरी जिंदगी यही रहूंगी,
मैंने कहा.... जैसी मर्जी तुम्हारी बेटी,
और घर के लिए बस लिया.... आते वक्त यही सोच रहा था,,, दुसरो की बातो मे आकर उन साधुओ ने उस बेटी पर ना जाने कितने इल्जाम लगा डाले, पर काजल के अंदर तो उन्ही साधुओ के दिए गुण है तो वह भला कोई गलत काम कैसे कर सकती थी,
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